Sunday, December 03, 2006

जहान्वी, तुम कहाँ हो?

देव-नदी की चंचलता लिए
समेटे हिम-तुषार की निर्मलता
बहती तुम निर्भय हो
कल-कल छल-छल चली आती हो.
जहान्वी, तुम कहाँ हो?

मदमस्त हो झूमता हैं
जिसकी गोद में पवन .
हो के बेफिक्र
प्रवाहित होती हैं
जिसकी रगों में, ऐसी तुम हो.
जहान्वी, तुम कहाँ हो?

भाषा तो अनेकों हैं अधरों पे
पर तुम्हारी बोली हैं प्रेम की
ह्रदय विशाल हैं सागर सा
जिससे अमृत-रस छलकती रहती हो.
जहान्वी, तुम कहाँ हो?

पाप-पुन्य का भेद कैसा
ऊँच-नीच का भावः कहाँ
समेटे जग को अपने आँचल में
एक मधुर मुस्कान लिए,
चली आती हो.

जहान्वी, तुम कहाँ हो?

Wednesday, September 13, 2006

रोते हैं हम, लेकिन सिसकियाँ दबा लेते हैं

रोते हैं हम, लेकिन 
सिसकियाँ दबा लेते हैं
एक हलकी मुस्कान 
होटों पे सजा लेते हैं |
दिल का दर्द, हम कहें किससे  
खुद को ही समझा लेते हैं |
उठते इस तूफान को दिल में समेटे हुए 
खुद ही जलजले का मज़ा लेते हैं |

Wednesday, July 12, 2006

आज दस सालों बाद भी ये ख्याल आता हैं

आज दस सालों बाद भी ये ख्याल आता हैं,
कि आज भी उनका ख्याल आता हैं,

यूँ तो जुबां पे उनका नाम नहीं हैं
पर रह-रह के ये सवाल आता हैं
कि आख़िर क्यूँ उनका ख्याल आता हैं.

मुड़ गए वो तो एक मोड़ पे, जाने क्यूँ
ये याद हर साल आता हैं
कि आज भी उनका ख्याल आता हैं.

कहते नहीं हम कुछ भी महफिल में
क्यूँकि जुबान पे सिर्फ़ दिल का हाल आता हैं
कि आज भी उनका ख्याल आता हैं.



कभी रगों के लहू से टपकी

कभी रगों के लहू से टपकी, तो कभी बदन के पसीने से। कभी थरथराते होटों से, तो कभी धधकते सीने से।  टपकी है हर बार, आजादी, यहाँ घुट-घुट के जीने स...