Monday, June 16, 2008

देखता हूँ जब भी दुनिया को, ख़ुद को खड़ा पाता हूँ

देखता हूँ जब भी दुनिया को,
ख़ुद को खड़ा पाता हूँ.

दौड़ते भागते लोगों के बीच
पता नहीं, ख़ुद को कहाँ पाता हूँ?

हर रास्ते की हैं एक मंजिल, जानता हूँ
फिरभी ख़ुद को चौराहे पर, खड़ा पाता हूँ.

अपनों के बीच भी
ख़ुद को तनहा पाता हूँ.

सिफारिश करूँ अपनी खुशियों की
किससे, नहीं वो खुदा पाता हूँ.

बढ़ रहा हूँ मंजिल की ओर,
पर किधर, नहीं वो रास्ता पाता हूँ.

Saturday, June 07, 2008

दूर तक जाते रास्तों पर

दूर तक जाते रास्तों पर
मैं दूर तक चला.
मिले पड़ाव कई मगर
ठिकाना एक न मिला.

बस अब नहीं, हर बार यह
सोच, एक कदम और चला.
जब मुड़ के देखा तब दिखा,
कि मैं तो मीलों चला.

अब रुकना व्यर्थ हैं
पर लगता चलना भला.
न हैं ठिकाना तो क्या
एक पड़ाव तो हर बार मिला.

थोडा रुक लिया, थोडा थम लिया
फिर नए जोश से आगे को चला
पथ दिखें कई, कई बार नहीं
विश्वास दृढ कर हर बार चला

ठेस लगी, गीरा भी कभी
दर्द हुआ, सब सहता चला
काँटों के शर मिले, पर
फूलों का सेज भी मिला

यात्रा का आनंद इसमें सुख-दुःख
धुप-छाव संग, मैं चला.
कह गए है बुजुर्ग, जो
अंत भला तो सब भला.

कभी रगों के लहू से टपकी

कभी रगों के लहू से टपकी, तो कभी बदन के पसीने से। कभी थरथराते होटों से, तो कभी धधकते सीने से।  टपकी है हर बार, आजादी, यहाँ घुट-घुट के जीने स...