तो कभी बदन के पसीने से।
कभी थरथराते होटों से,
तो कभी धधकते सीने से।
टपकी है हर बार,
आजादी,
यहाँ घुट-घुट के जीने से।
मैं आजाद हूँ... क्या ?
हैं शब्दों से कुछ हासिल, यहीं कहता हैं मेरा-दिल कि ...
वक़्त के साथ साहिल बदल जाता है।
पल दो पल में आशिक़-ए-दिल बदल जाता है।
क्या है यह राह-ए-जिंदगी का सफ़र,
कि चलते-चलते मौज़-ए-मंज़िल बदल जाता है।
लिखूँ कुछ भी ज़िक्र तेरा ही रहता है,
देखूँ जिसे भी फ़िक्र तेरा ही रहता है।
दिवाना तो नहीं लेकिन, खुदा,
दिवानगी में झुका सर मेरा ही रहता है।
जब से होश सम्हाल हैं
तबसे तुम्हें चलते देखा हैं
पल-पल की गिनती तुमसे होते देखा हैं
क्या कभी तुम थकती नहीं
साँसें,
क्यों कभी तुम रूकती नहीं!
हमने ख़ुदा से जो ख़ुदाई माँगली,
जिंदगी के बदले, जैसे तन्हाई माँगली।
अब तो साँसे भी चलती हैं रुक रुक के
एक गुस्ताख़ी की, ख़ुदा, क्या भरपाई माँगली।
यह ख़ता हैं ख़ुदा की
या सज़ा हैं चाँद की
कि अकेला हैं
तारों के साथ भी,
और
तारों के बाद भी
कभी रगों के लहू से टपकी, तो कभी बदन के पसीने से। कभी थरथराते होटों से, तो कभी धधकते सीने से। टपकी है हर बार, आजादी, यहाँ घुट-घुट के जीने स...