Saturday, May 19, 2001

जंग के मैदान को देखा

जंग के मैदान को देखा, 
रक्तरंजित धरती देखी |


लाशों का ढ़ेर देखा, 
उनकी तन्हाई देखी |


ज़ख्म से बहते खून को देखा, 
खून से सनी मिट्टी देखी |


भयभीत चेहरों को देखा, 
दिल की खामोशी देखी |


नफरत और घृणा के आग को देखा, 
आग में झुलसे प्रेम को देखा |


सिपाहियों की सरफरोशी देखी, 
सन्नाटे की आगोशी देखी |


अपने भाइयों को मरते देखा, 
सीने के टुकड़े को लड़ते देखा |


जीत की ख़ुशी मानते देखा, 
हार के मातम को देखा |


जंग के मैदान को देखा, 
जंग के मैदान को देखा |

ये कविता मैंने २००१ या शायद २००२ में कभी लिखी थी | जो भाव इस कविता में नीहित हैं वो बीते हुए युगों में भी प्रासंगिक था, आज भी हैं और तब तक रहेगा जब तक जंग होते रहेंगे |
धन्यवाद

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कभी रगों के लहू से टपकी, तो कभी बदन के पसीने से। कभी थरथराते होटों से, तो कभी धधकते सीने से।  टपकी है हर बार, आजादी, यहाँ घुट-घुट के जीने स...