जंग के मैदान को देखा,
लाशों का ढ़ेर देखा,
उनकी तन्हाई देखी |
ज़ख्म से बहते खून को देखा,
खून से सनी मिट्टी देखी |
भयभीत चेहरों को देखा,
दिल की खामोशी देखी |
नफरत और घृणा के आग को देखा,
आग में झुलसे प्रेम को देखा |
सिपाहियों की सरफरोशी देखी,
सन्नाटे की आगोशी देखी |
अपने भाइयों को मरते देखा,
सीने के टुकड़े को लड़ते देखा |
जीत की ख़ुशी मानते देखा,
हार के मातम को देखा |
जंग के मैदान को देखा,
जंग के मैदान को देखा |
रक्तरंजित धरती देखी |
लाशों का ढ़ेर देखा,
उनकी तन्हाई देखी |
ज़ख्म से बहते खून को देखा,
खून से सनी मिट्टी देखी |
भयभीत चेहरों को देखा,
दिल की खामोशी देखी |
नफरत और घृणा के आग को देखा,
आग में झुलसे प्रेम को देखा |
सिपाहियों की सरफरोशी देखी,
सन्नाटे की आगोशी देखी |
अपने भाइयों को मरते देखा,
सीने के टुकड़े को लड़ते देखा |
जीत की ख़ुशी मानते देखा,
हार के मातम को देखा |
जंग के मैदान को देखा,
जंग के मैदान को देखा |
ये कविता मैंने २००१ या शायद २००२ में कभी लिखी थी | जो भाव इस कविता में नीहित हैं वो बीते हुए युगों में भी प्रासंगिक था, आज भी हैं और तब तक रहेगा जब तक जंग होते रहेंगे |
धन्यवाद