Friday, December 06, 2013

कैंटीन में आते-जाते

कैंटीन में आते-जाते
कई बार नज़रे मिली थी 
कई बार निगाहों ने निगाहों में 
झाँका था, कुछ तलाशा था 

एक पल के लिए ही सही 
एक चाहत जगी थी कभी 
एक दबी सी चिंगारी इधर 
एक दबी सी चिंगारी उधर 

कई बार तुमने भी 
एक बहाने से 
मेरी तरफ़ देखा था 
कई बार मैंने भी 
उसी बहाने से 
तुम्हारी तरफ देखा था 

कुछ कहा था तुमने ?
क्या कहा था तुमने ?
या वो तुम्हारी आँखे थी,
जो कुछ कह रही थी,
क्या कह रही थी ?

अब इन सवालों
का क्या मतलब।

क्या भूल गया था,
मैं कहीं भटक गया था।
ख्वाबों के बहकावे में 
कुछ दूर निकल गया था।  
जब नींद खुली तो देखा
ना ख्वाब था, ना तुम थी।  



कभी रगों के लहू से टपकी

कभी रगों के लहू से टपकी, तो कभी बदन के पसीने से। कभी थरथराते होटों से, तो कभी धधकते सीने से।  टपकी है हर बार, आजादी, यहाँ घुट-घुट के जीने स...