Wednesday, March 31, 2010

पिघलते हुए जलते मौम की लौ में

पिघलते हुए जलते मौम की लौ में
चमकता हुआ खुबसूरत तेरा चेहरा.
सरमाते हुए उगते चाँद की रौशनी में
गहराता हुआ इन घटाओं का पहरा.


थराते हुए सुर्ख होठों की ख़ामोशी में
गुम पड़े लफ़्ज़ों का संग, गहरा.
नम हुए खोजते आँखों की सरगोशी में
सोए पड़े एक ख्वाब का जागता सवेरा.


धड़कते हुए शांत दिल की धड़कन में
खोए किसी जज्बात का छुटता सहारा.
खींचे हुए परेशान भोंओं की शिहरण में
खोजता किसी डूबते विचारों का किनारा.

Friday, March 19, 2010

जानू ना जानू मैं...

जानू ना जानू मैं
कि
चाहू मैं चाहू क्या |

चलू जो चलू
इन
रास्तों पे,
जानू ना जानू मैं
ये
जाये तो जाये कहाँ |

खोजू जो खोजू मैं, पर
क्या
कहते जो कहते मंजिल
जिसे
पाऊँ तो पाऊँ कहाँ |

देखू तो देखू
क्या
दिखे जो वो चाहू ना |

कहूँ तो कहूँ
किस्से
वो खुदा क्यूँ मिले ना |

Thursday, March 11, 2010

गगन चुम्बी इमारतों के बीच से

गगन चुम्बी इमारतों के बीच से

जाती हुई एक सड़क पे

गाड़ियों की क़तर में
मैं बैठा किसी किनारे
देख रहा हूँ उन गाड़ियों में
बैठे लोगों को
शायद पहचानू किसी को|
नजरे मिलती हैं एक खालीपन से|
इस भीड़ में चलते हुई हम सब

अजनबी है|


कभी रगों के लहू से टपकी

कभी रगों के लहू से टपकी, तो कभी बदन के पसीने से। कभी थरथराते होटों से, तो कभी धधकते सीने से।  टपकी है हर बार, आजादी, यहाँ घुट-घुट के जीने स...