Saturday, March 21, 2009

गुजरती हुई बहार की एक भोर

गुजरती हुई बहार की एक भोर
आए हो तुम बन बादल घन-घोर.
छा गए मेरे दिल के आसमान पर
मेरे प्रिये, मेरे प्रीतम, मेरे चित-चोर.

स्थिर पड़े भावों में ये कैसा हैं ज़ोर
हलचल मचा किनारे की ओर.
शांत हैं सब उस पार, मगर
इस पार, ये कैसा सन्नाटे का शोर.



कभी रगों के लहू से टपकी

कभी रगों के लहू से टपकी, तो कभी बदन के पसीने से। कभी थरथराते होटों से, तो कभी धधकते सीने से।  टपकी है हर बार, आजादी, यहाँ घुट-घुट के जीने स...