Thursday, April 30, 2015

डोल उठी धरती

डोल उठी धरती, 
फट गया आसमां 
गिर गए महल सारे 
रो पड़ा इंसा। 

क्यों दम्भ इतना, 
जब हैं धूल जितना 

किस बात पे तू इतराता हैं 
अरे इंसान! 
एक झटके में बिखर जाता हैं 

कुछ तो हया करो तुम 
प्रकृति से थोड़ा तो डरो तुम 

मत भूलो 
तना सर, कट जाता हैं 
झुका हुआ आशीष पता हैं। 


Thursday, April 23, 2015

वक़्त की पुरानी बस्ती में

वक़्त की
पुरानी बस्ती में
आज फिर
यादों के
बिखरे टुकड़ों को
चुनने गया था,
ढूंढने गया था,
या शायद
खोने गया था।


कभी रगों के लहू से टपकी

कभी रगों के लहू से टपकी, तो कभी बदन के पसीने से। कभी थरथराते होटों से, तो कभी धधकते सीने से।  टपकी है हर बार, आजादी, यहाँ घुट-घुट के जीने स...