Sunday, December 03, 2006

जहान्वी, तुम कहाँ हो?

देव-नदी की चंचलता लिए
समेटे हिम-तुषार की निर्मलता
बहती तुम निर्भय हो
कल-कल छल-छल चली आती हो.
जहान्वी, तुम कहाँ हो?

मदमस्त हो झूमता हैं
जिसकी गोद में पवन .
हो के बेफिक्र
प्रवाहित होती हैं
जिसकी रगों में, ऐसी तुम हो.
जहान्वी, तुम कहाँ हो?

भाषा तो अनेकों हैं अधरों पे
पर तुम्हारी बोली हैं प्रेम की
ह्रदय विशाल हैं सागर सा
जिससे अमृत-रस छलकती रहती हो.
जहान्वी, तुम कहाँ हो?

पाप-पुन्य का भेद कैसा
ऊँच-नीच का भावः कहाँ
समेटे जग को अपने आँचल में
एक मधुर मुस्कान लिए,
चली आती हो.

जहान्वी, तुम कहाँ हो?

कभी रगों के लहू से टपकी

कभी रगों के लहू से टपकी, तो कभी बदन के पसीने से। कभी थरथराते होटों से, तो कभी धधकते सीने से।  टपकी है हर बार, आजादी, यहाँ घुट-घुट के जीने स...