Tuesday, August 16, 2016

कभी रगों के लहू से टपकी

कभी रगों के लहू से टपकी,
तो कभी बदन के पसीने से।
कभी थरथराते होटों से,
तो कभी धधकते सीने से। 
टपकी है हर बार,
आजादी,
यहाँ घुट-घुट के जीने से।


मैं आजाद हूँ... क्या ?

Sunday, February 14, 2016

आज दोस्तों ने पूछा

आज दोस्तों ने पूछा-
अब तो तुम्हारी कविताएँ
बदल गई होंगी ?
मैंने कहा- हाँ बिलकुल,
कल तक जो कागजों पे थी,
आज हकीकत बन गई है।   

कभी रगों के लहू से टपकी

कभी रगों के लहू से टपकी, तो कभी बदन के पसीने से। कभी थरथराते होटों से, तो कभी धधकते सीने से।  टपकी है हर बार, आजादी, यहाँ घुट-घुट के जीने स...