Saturday, March 28, 2015

ख़ामोशियों में छुपी हैं सिसकियाँ कई

ख़ामोशियों में छुपी हैं सिसकियाँ कई, 
डर लगता हैं फ़िसल जाए न कहीं।
बेड़ियों में बंधी हैं तन्हाईयाँ नई,
मौम सा पिघल जाए न कहीं। 
सुबक-सुबक के रोता हैं यह दिल,
बूंद बनके निकल जाए न कहीं।

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