Sunday, August 08, 2004

तुम हो या नहीं, मुझे शायद पता नहीं

तुम हो या नहीं,
मुझे शायद पता नहीं.
पर ऐसा क्यूँ होता हैं,
आहट तेरे कदमों की
कानों तक आती हैं.
जो देखने को तुम्हें,
नजरे ऊठाता हूँ,
छिप कहीं जाती हो.

मेरी परछाई नहीं हो,
शायद कम भी नहीं हो.
मेरे साथ हो या, 
कहीं नहीं हो.

रास्तों पे जब अकेला,
मैं चलता हूँ, जाने क्यूँ,
साथ तुम भी चलती हो.
ऐसा क्यूँ लगता हैं कि
मैं जानता हूँ तुम्हें
फ़िर भी, अजनबी हो.

फ़ासले तो घटते हैं दो 
कदम आगे चलने पर,
क्यूँ तुम भी दो 
कदम बढ जाती हो.

जिन्दगी, तन्हा बिताने
का सोचा था, पर
ऐ तनहाई!! हर बार
क्यूँ आ जाती हो.

1 comment:

Ritesh Anand said...

Beautiful words..nice flow of emotions..gud work.

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