Friday, November 05, 2010

कई बार मैं सोचता हूँ, खुद को खुद में खोजता हूँ

कई बार मैं सोचता हूँ
खुद को खुद में खोजता हूँ |
खो गया मैं कहाँ
हर पल यही सोचता हूँ |
चला था जिस मस्ती में कभी
अब उस मस्ती को खोजता हूँ |
बदरंग नहीं हैं जिंदगी
फिरभी रंग को खोजता हूँ |
खुद को खुद में खोजता हूँ |


पत्ते-पत्ते झडे थे जिस डाली से
उस डाली के वृक्ष को खोजता हूँ |
भरी थी सावन में नदियाँ जिस बारिश से
उसके हर बूंद के बादल को खोजता हूँ |
मैं खुद में खुद को खोजता हूँ |


4 comments:

आशीष मिश्रा said...

पत्ते-पत्ते झडे थे जिस डाली से
उस डाली के वृक्ष को खोजता हूँ |
भरी थी सावन में नदियाँ जिस बारिश से
उसके हर बूंद के बदल को खोजता हूँ |
मैं खुद में खुद को खोजता हूँ |
अति सुंदर............

आप को भी सपरिवार दिपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ

kulvender sufiyana aks said...

ati sunder rachana hai apki acha laga

Dr. Pratibha Singh said...

bahut achi kavita hai.

Unknown said...

very nice.

कभी रगों के लहू से टपकी

कभी रगों के लहू से टपकी, तो कभी बदन के पसीने से। कभी थरथराते होटों से, तो कभी धधकते सीने से।  टपकी है हर बार, आजादी, यहाँ घुट-घुट के जीने स...