सोचा था पता पूछता हुआ
मंज़िल तक पहुँच जाऊँगा।
मगर यह न पता था कि
राह भी गुमराह करती है।
मंज़िल तक पहुँच जाऊँगा।
मगर यह न पता था कि
राह भी गुमराह करती है।
कभी रगों के लहू से टपकी, तो कभी बदन के पसीने से। कभी थरथराते होटों से, तो कभी धधकते सीने से। टपकी है हर बार, आजादी, यहाँ घुट-घुट के जीने स...
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